Thursday, April 18, 2013

जमीनी तमाशा 2


जमीन के सम्बन्ध में इतने नियम,अधिनियम,शासनादेश,सर्कुलर और बिनियम हैं कि जमीन इसके मालिक की न होकर उक्त कानूनों के बीच फुटबाल हो गयी है. इन्हीं तमाशों को देखने की कोशिश की गयी है.
मामला उच्च न्यायालय में चल रहा हैऐसे में वे इस बारे में कोई कमेंट नहीं लेकिन कागज़ में काम करते रहेंगे
डीएफओ सुंदरनगर का कहना है कि मामला अभी ध्यान में आया है। वन विभाग की जमीन बिना केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति से लीज पर नहीं की जा सकती। इस बारे में जांच की जाएगी कि आखिर वनभूमि की जमीन की कंपनी के नाम लीज कैसे हो गई।
भू अधिग्रहण अधिकारी एवं सुंदरनगर के एसडीएम विवेक चौहान का कहना है कि उनके सामने वन विभाग की जमीन कर ऐसी कोई लीज नहीं हुई है। हो सकता है कि उनसे पहले का कोई मामला हो। चूंकि सीमेंट फैक्टरी से संबंधित मामला उच्च न्यायालय में चल रहा हैऐसे में वे इस बारे में कोई कमेंट नहीं कर सकते हैं।
मंडीहिमाचल के सुंदनगर के नालिनी मुहाल के खसरा नंबर 173 में स्थित चरागाह बिला दरख्तान किस्म की वन भूमि को सुंदरनगर में सीमेंट कारखाने का निर्माण कर रही कंपनी को लीज पर दे दिया गया। सीमेंट कारखाने के लिए वनभूमि लीज पर देने के लिए केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से अनुमति जरूरी थी और इस के लिए सुंदनगर फॉरेस्ट डिविजन से केस बना कर मंत्रालय को भेजा जाना थालेकिन इस जमीन के अधिग्रहण के लिए ऐसी अनुमति लेना जरूरी नहीं समझा गया स्थानीय पटवारी के रोजनामचे में 9 अप्रैल 2010 को इस जमीन की लीज होने के बारे में नोट चढ़ा दिया गयाजबकि इस जमीन के हस्तांतर के बारे में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से कोई अनुमति नहीं ली गई। इलाका पटवारी हीरा सिंह का कहना है कि ऐसी लीज किसके आदेश से हुईउनके पास सूचना नहीं है। सुंदरनगर के नालिनी मुहाल में 27 बीघा, 10 बिस्वा भूमि को चुपचाप कंपनी के नाम कर देने की पोल खुल जाने के बाद अब राजस्व विभाग और वन विभाग दोनों के अफसरों में हड़कंप मच गया है
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------- होशंगाबाद.मध्य-प्रदेश के एकमात्र हिल स्टेशन पचमढ़ी में 70 एकड़ अभयराण्य की भूमि को निजी लोगों के हवाले करने का मामला सामने आया है। सरकारी जमीन की हेराफेरी का यह कारनामा मप्र शासन द्वारा गठित एक सदस्यीय भू-अनियमितता जांच समिति ने पकड़ा है।
पचमढ़ी के ग्राम बारीआम की बड़े झाड़ की 23.14 एकड़ भूमि और ग्राम छिरई की 47.38 एकड़ भूमि पिपरिया के एसडीएम ने मप्र भू-राजस्व संहिता की धारा 57 (2) का हवाला देते हुए भोपाल के प्रभावशाली लोगों को दिलवा दी। हस्तांतरित जमीन की कीमत करोड़ों रुपए है,जबकि मप्र भू-राजस्व संहिता की इस धारा का उपयोग अभयारण्य (आरक्षित और संरक्षित वन क्षेत्रकी भूमि के मामले में नहीं किया जा सकता। यह भी गौरतलब है कि उच्च न्यायालय ने 12 नवंबर 2003 को एक आदेश में पचमढ़ी की जमीनों के हस्तांतरण पर रोक लगाई थी,इसके बावजूद राजस्व अधिकारी ने यह किया पहले इस आदेश के चलते प्रकरण कई दिनों तक लंबित रखा गया था,लेकिन अचानक मामला खोलकर उसी दिन तर्क सुनकर आदेश पारित कर दिया। इस संबंध में  तो राज्य शासन को कोई नोटिस दिया गया और  ही वन विभाग को।
मध्य-प्रदेश – अफसरसाही का कथन------ कृषि संरक्षण कानून बनाने की जिम्मेदारी केंद्र के दायरे में बताकर अफसरसाही ने पूरे मामले को ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया है।
भोपाल में किसानों की एक हजार एकड़ जमीन हड़पने के लिए अफसरों ने नीलामी की पूरी कार्रवाई ही बैंक में बैठे-बैठे कर ली किसान को पता भी नहीं चला। सोने सी कीमती जमीन मिट्टी के मोल बिक गई। भोपाल का यह अब तक का सबसे बड़ा भूमि घोटाला है। इस घोटाले की जांच संयुक्त पंजीयक श्रीकुमार जोशी की अध्यक्षता वाली समिति ने की थी। समिति ने 1999 से 2007 तक भूमि विकास बैंक भोपाल द्वारा की गई जमीन की नीलामी की जांच की थी। इसमें ऐसे कई चौंकाने वाले तथ्य हैंजो बताते हैं कि सरकारी तंत्र ने किस तरह किसानों की जमीनें हड़प लीं। रिपोर्ट में लिखा हैजमीन की नीलामी की कार्रवाई मौके पर ही होनी चाहिए थीलेकिन वह किसी अन्य स्थल पर की गई उसका उल्लेख भी रिकार्ड में नहीं है। नीलामी के खर्च का विवरण भी बैंक रिकार्ड में नहीं मिलता। कुछ जमीनों की नीलामी का खर्चकुल कर्ज की राशि से भी ज्यादा बताया गया है। इस कारण जांच अधिकारी ने पूरी कार्रवाई को ही अवैध माना। जमीन नीलाम करने की सूचना खरीददारों को कैसे मिलीविज्ञापन से या सार्वजनिक सूचना द्वाराबैंक ऐसा कोई रिकार्ड पेश नहीं कर पाया। अधिकारियों और प्रभावशाली लोगों द्वारा जमीन हड़पने का षड्यंत्र कागजों में भी साफ नजर आता है। जो किसान मर गए थेउनकी जमीन भी नीलाम कर दी गई। मुख्यमंत्री ने जमीन हड़पने की पूरी कहानी सुनने के बाद सहकारिता विभाग और भूमि विकास बैंक के नौ अधिकारियों को निलंबित कर दिया। मुख्यमंत्री के निर्देश पर न्यायालय में किसानों के केस की पैरवी सरकारी वकील करेंगे।
कृषि मंत्री ने लिखकर वन संरक्षण की तरह कृषि संरक्षण कानून बनाने की मांग की है। इसमें उन्होंने यह भी लिखा है कि संविधान के मुताबिक खेती राज्य का विषय है और इसलिए संबंधित कानून बनाना केंद्र का नहीं राज्य का मामला है। हर साल दो फीसदी कृषि भूमि विकास की भेंट चढ़ रही है। कानून  बना तो 50 साल में आबादी दोगुनी और कृषि भूमि शून्य हो जाएगी।
सरकार ने 2009 में अफसरों के साथ किए मंथन कार्यक्रम और इस साल विधानसभा के विशेष सत्र में कृषि भूमि का गैर कृषि कामों में उपयोग  होने देने का संकल्प लिया थालेकिन इस पर अमल आज तक नहीं हो पाया है। मंथन कार्यक्रम में यह संकल्प था कि वन संरक्षण की तरह ही कृषि संरक्षण कानून भी बनना चाहिए ।मंथन व संकल्प के बाद भी कृषि संरक्षण कानून बनाने की जिम्मेदारी केंद्र के दायरे में बताकर अफसरसाही ने पूरे मामले को ठंडे बस्ते के हवाले कर दिया है।   
गौरतलब है कि महाराष्ट्र में इस संबंध में कानून बना रखा है कि किसान की खेती की जमीन सिर्फ किसान ही खरीद सकेगा।अमिताभ जी को भी किसान बन कर और बनाकर अफ़सरो ने जमीन दिलाई!
सहारनपुर बैंक ऋण का 29 हजार रुपया  चुका पाने पर राजस्व विभाग के अफसरों ने एक दलित की 16 बीघा जमीन मात्र 1.35 लाख रुपये में नीलाम कर दी। भूमि की बाजार कीमत 32 लाख से ऊपर थी। कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद कमिश्नर ने नीलामी को निरस्त कर एसडीएम समेत चार अफसरों पर कार्रवाई की संस्तुति की है। यह मामला है यूपी के सहारनपुर जिले के नकुड़ गांव का। यहां दलित इलम चंद के पास शेरपुर गांव में 16 बीघा जमीन थी। उसने अपनी भूमि पर नौ फरवरी 1996 में यूको बैंकअंबेहटा से कर्ज लिया था। ऋण की समय से अदायगी  होने के कारण बैंक ने 10 फरवरी 1999 को वसूली प्रमाण पत्र जारी किया। उसके बाद राजस्व विभाग ने सात जनवरी 2002 को इलम चंद की 16 बीघा जमीन मात्र 1.35 लाख रुपये में नीलाम कर दी। खास बात यह रही कि जमीन नीलामी की इस कार्रवाई का इलम चंद के परिवार को पता भी नहीं चला। जमीन की नीलामी 2002 में हुईजबकि 2001 में इलम चंद की मृत्यु हो चुकी थी। नीलामी के बाद राजस्व अधिकारियों ने बैंक का बकाया धन तो जमा करा दिया पर शेष बची धनराशि इलम चंद के परिजनों को वापस नहीं लौटाई। एक लाख रुपये छह फरवरी 2002 को नायब तहसीलदार भरत सिंह ने अपने रजिस्टर नंबर चार में दर्ज कर लिए। प्रशासन ने जिन चार लोगों सुग्गनचंदनिवासी भैरमऊसल्हा निवासी इरसादपुरब्रह्मसिंह निवासी ढायकी तथा नक्षत्रपाल निवासी ढायकी को जमीन नीलामी के दौरान मौजूद दिखायाजांच में वह चारों इलम चंद के करीबी रिश्तेदार निकले। मामले का पता चलने पर इलमचंद के पुत्र रोहताश ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हाईकोर्ट ने 18 अगस्त 2009 को तीन माह के भीतर जिला प्रशासन को मामले के निस्तारण के निर्देश दिए। जिस पर कमिश्नर सुरेश चंद्रा ने एडीएमई से जांच कराई और उसके आधार पर 22 दिसंबर 2010 को नीलामी निरस्त कर दी। जांच में पता चला कि नीलामी प्रक्रिया कुछ खास लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए अपनाई गई। जांच में तत्कालीन उप जिलाधिकारी नकुड़तत्कालीन तहसीलदार , तत्कालीन नायब तहसीलदार  संग्रह अमीन को दोषी मानते हुए कार्रवाई की संस्तुति की गई है।
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जयपुर. अजमेर रोड पर मुर्गीखाने की 18 साल पहले बेची गई जमीन की लीजडीड निरस्त करने को लेकर नगरीय विकास मंत्री और जेडीसी आमने-सामने  गए हैं। मुर्गीखाने की करीब 8000 मीटर जमीन जेडीए ने वर्ष 1993 में करीब 93 लाख रुपए नीलामी में बेची थी। उच्चतम बोली होने के कारण इसे जयपुर के एक बिल्डर्स को दे दी और 10 प्रतिशत राशि तुरंत जमा करवा ली गई। वर्ष 2005 में जेडीए ने नीलामी की पुष्टि करते हुए बकाया राशि भी जमा करवा ली। लीजडीड जारी करते हुए कब्जा संभला दिया। बाद में जेडीए ने बिल्डर्स को लीजडीड निरस्त करने का नोटिस थमा दिया।
हाईकोर्ट ने जेडीए की इस कार्यवाही को गैरकानूनी करार दिया। जेडीए ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जाने की राय मांगी तो जेडीए के वकीलमहाधिवक्ताअतिरिक्त महाधिवक्ता और निदेशक विधि ने अपील नहीं करने का सुझाव दिया। जेडीए वकील ने जरूर यह कहा कि दीवानी वाद करने का निर्णय प्रशासनिक स्तर पर लिया जा सकता है।
नगरीय विकास मंत्री ने दलील दी है कि निदेशक विधिजेडीए के वकीलमहाधिवक्ता और अतिरिक्त महाधिवक्ता तक यह राय दे चुके हैं कि इस मामले को कोर्ट में ले जाने का कोई फायदा नहीं है।
सिंगल बेंच और डबल बेंच में जेडीए मुकदमा हार चुकी है। अब अगर इस मामले को पुनकोर्ट में ले जाया जाता है तो कोर्ट फीस के रूप में करीब 2 करोड़ रुपए जमा कराने होंगे। वकीलों की मोटी फीस देनी पड़ेगी सो अलग। वैसे भी एक बार नीलामी की पुष्टि करनेकब्जा संभलाने और लीजडीड जारी करने के 6 साल बाद जेडीए को उसे निरस्त करने का कोई अधिकार नहीं रह जाता
नगरीय विकास मंत्री ने मुख्यमंत्री को पत्र लिख कहा है कि जेडीसी उनके निर्देशों को दरकिनार कर कोर्ट में जाना चाहते हैं। उन्हें जाने की अनुमति दी जाएलेकिन यदि जेडीए कोर्ट में हार जाता है तो रिस्क एंड कॉस्ट की वसूली जेडीए आयुक्त से व्यक्तिगत तौर पर होनी चाहिए।
जेडीसी का कहना है कि जेडीए के हित में वे ऐसा करना चाहते हैंइससे ज्यादा वे कुछ नहीं कहेंगे।
इस मामले में बिल्डर्स का कहना है कि कोर्ट स्टे के नाम पर जेडीए अधिकारी उन्हें लगातार भ्रमित करते रहे। हाईकोर्ट ने भी अपने फैसले में इस बारे में जेडीए के खिलाफ कड़ी टिप्पणियां की हैं। ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट के तहत जेडीए को विवादों से रहित संपत्ति बेचनी चाहिए। जेडीए अब खुद विवाद पैदा करके 18 साल बाद इस जमीन को लेना चाहता हैजो अनुचित है।
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लवासा लेक सिटी
लवासा लेक सिटी का मामला अदालत में भी चल रहा है। अदालत के आदेश पर ही पर्यावरण मंत्रालय ने केंद्र और राज्य के विशेषज्ञों की टीम भेजकर पुणे के नजदीक बन रही लेक सिटी पर जमीनी स्थिति का जायजा लिया भी था। विशेषज्ञों की रिपोर्ट के मुताबिक लवासा लेक सिटी ने अपना दायरा वास्तविक अनुबंध 585 हेक्टेयर से बढ़ा लिया है। साथ ही निर्माण की ऊंचाई के लिए निर्धारित मानकों की भी अनदेखी की गई है। इसके अलावा इसमें सड़क निर्माण में भी नियमों की अनदेखी की गई है। साथ ही लेक सिटी में विश्वस्तरीय कंवेंशन हॉल को भी लेक सिटी की अवधारणा के विपरीत पाया गया है।
पुणे के नजदीक पहाड़ों पर बन रही हिल सिटी लवासा पर पर्यावरण मंत्रालय ने गैरकानूनी करार दिया है। शरद पवार के ड्रीम प्रोजेक्ट माने जाने वाले इस हिल सिटी के बारे में मंत्रालय का मानना है कि इसके कारण पर्यावरण क्षरण हुआ है। मंत्रालय ने कई सख्त शर्तो के साथ लवासा की परियोजना पर विचार करने को भी कहा है। इस बाबत जारी अपने आदेश में पर्यावरण मंत्रालय ने साफ किया है कि लवासा लेक सिटी ने पर्यावरण संरक्षण अध्यादेश 1994, 2004 और 2006 के प्रावधानों का उल्लंघन किया है और पर्यावरण को नुकसान पहुंचाया है। साथ ही मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि जब तक लवासा कार्पोरेशन लिमिटेड (एलसीएलपर्यावरण नुकसान की भरपाई के लिए जरूरी कदम नहीं उठातातब तक वहां कोई निर्माण  किया जाए और यथास्थिति बना कर रखी जाए। मंत्रालय ने एलसीएल को आरंभ से परियोजना पर एक विस्तृत रिपोर्ट दाखिल करने को कहा है। साथ ही निर्माण से जुड़े सभी ठेकों और ठेकेदारों की जानकारियां भी मुहैया कराने का आदेश दिया है। इसके अलावा लवासा कार्पोरेशन को परियोजना पर अब तक खर्च धन और खातों की भी जानकारी पेश करने के निर्देश दिए हैं। हालांकि मंत्रालय ने यह जरूर कहा है कि यदि लवासा कार्पोरेशन पर्यावरण नियमों के उल्लंघन के लिए हर्जाना अदा करेसाथ ही इससे अलग एक पर्यावरण को हुए नुकसान की भरपाई के लिए कोष की स्थापना करे और यह सुनिश्चित करे कि आगे परियोजना के कारण इलाके के नाजुक पारिस्थितिक तंत्र को कोई क्षति नहीं पहुंचेगी तो इस पर विचार किया जा सकता है।
लवासा ने पर्यावरण मंत्रालय से राहत मिलने के बाद पुणे के निकट स्थित तीन हजार करोड़ रुपए की लागत वाली अपनी हिल सिटी परियोजना के पहले चरण की पर्यावरण मंजूरी के लिए ताजा अर्जी दाखिल की है जिस पर एक उच्च स्तरीय समिति विचार कर रही है। पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने सोमवार को कहा, 'लवासा ने पहले चरण की परियोजना के लिए पर्यावरण मंजूरी हासिल करने के मकसद से अर्जी दी है जिस पर विचार किया जा रहा है।उन्होंने कहा कि इस मामले पर विशेषज्ञ आकलन समिति विचार कर रही है। रमेश ने कहा कि पहले चरण की परियोजना दो हजार हेक्टेयर क्षेत्र की है। दूसरे चरण में तीन हजार हेक्टेयर क्षेत्र आता है। ..अभी दो हजार हेक्टेयर क्षेत्र वाले चरण पर विचार किया जा रहा है। दो से तीन हफ्ते बाद अगले चरण की अर्जी पर विचार किया जाएगा। यह पूछने पर कि क्या इस पर फैसला जल्द ही संभव हैमंत्री ने कहा, 'मैं नहीं जानता। समिति की बैठक हो रही है। मैं उसके कामकाज में दखल नहीं देता। समिति पहले चरण की मंजूरी पर फैसले के लिए बैठक कर रही है।रमेश ने कहा कि लवासा का मामला अदालत में गया था। अब कंपनी ने पर्यावरण मंजूरी के लिए आवेदन किया है। इस पर मंत्रालय आज और कल विचार करेगा। उचित प्रक्रिया अपनाने के बाद इस पर फैसला किया जाएगा।

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