Thursday, April 18, 2013

जमीनी तमाशा 1


जमीन के सम्बन्ध में इतने नियम,अधिनियम,शासनादेश,सर्कुलर और बिनियम हैं कि जमीन इसके मालिक की न होकर उक्त कानूनों के बीच फुटबाल हो गयी है. इन्हीं तमाशों को देखने की कोशिश की गयी है.
जमीन के मामले में सबसे सम्पन्न रक्षा मंत्रालय है.सेना के इलाके में बहुत भूमि पहले कैंट के रूप में दे दी गयी है,जो आज सभी शहरों के लगभग मध्य में पाश क्षेत्र में आ चुका है.सरकार रक्षा मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में आने वाली 17 लाख एकड़ जमीन रिकार्ड को कंप्यूटरीकरण भी कर रही है। सैन्य जमीनों के प्रबंधन पर हुई रक्षा मंत्रालय की सलाहकार समिति की बैठक में मौजूद मुरली मनोहर जोशी, शिवानंद तिवारी, मनीष तिवारी, शिवाजी अढ़लराव पाटिल समेत की सांसदों ने सरकार से रक्षा मंत्रालय की जमीनों के भौतिक सत्यापन की भी मांग की। रक्षा मंत्रालय को अब सैन्य इलाकों पर लागू र्क्स ऑफ डिफेंस एक्ट 1903 को बदलने की भी सुध आई है। सैन्य क्षेत्र से सटी जमीनों पर किसी भी निर्माण की पाबंदियां लगाने वाले करीब सौ साल पुराने कानून को मंत्रालय अब मौजूदा जरूरत के मुताबिक बनाने की तैयारी कर रहा है। रक्षा मंत्री एके एंटनी ने माना कि व्यवस्था में कई खामियां है। साथ ही सूत्रों के मुताबिक उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि सुखना और आदर्श सोसाइटी जैसे घोटालों ने रक्षा सेनाओं की छवि को खराब किया है। रक्षा मंत्री ने बताया कि सरकार अनापत्ति प्रमाण-पत्र की मौजूदा व्यवस्था में भी बदलाव कर रही है जिसके तहत स्थानीय सैन्य अधिकारियों को किसी भी निजी बिल्डर को निर्माण की मंजूरी देने का अधिकार नहीं होगा।

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स्पेशल इकॉनामिक जोन 
ताज ट्रिपेजियम जोन (टीटीजेड)
स्पेशल जोन - चांदनी चौक इलाका विशेष क्षेत्र में आता है
ईको-सेंसेटिव ज़ोन
नियमों की भूल-भुलैया
उत्तराखंड के कुमांऊ में अलमोड़ा के क़रीब बिनसर वन अभयारण्य मध्य हिमालय में स्थित एक मशहूर और लोकप्रिय पर्यटक स्थल है. इस अभयारण्य की सीमा से सटे लगभग 10 किमी वर्ग क्षेत्र को ईको-सेंसिटिव ज़ोन यानी पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किए जाने का प्रस्ताव है जिससे क़रीब 85 गांवों की आबादी और उनकी आजीविका प्रभावित होने की आशंका है.
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में सभी राज्य सरकारों को संरक्षित क्षेत्रों की सीमा पर ईको-सेंसेटिव ज़ोन घोषित करने के आदेश दिए हैं.
1972 के वन्य जीव संरक्षण अधिनियम के तहत ईको-सेंसेटिव ज़ोन घोषित किया जाता है. इस क्षेत्र में आमतौर पर खनन और उद्योग लगाने पर पाबंदी लग जाती है, बायोगैस और ईको-टूरिज़म को बढ़ावा दिया जाता है और पनबिजली जैसी परियोजनाओं और निर्माण को नियंत्रित किया जाता है.
ग़ौरतलब है कि उत्तराखंड में 66 प्रतिशत भूमि पहले से ही संरक्षित क्षेत्र है. यहां छह नेशनल पार्क, सात अभयारण्य और तीन संरक्षित क्षेत्र हैं. ईको-सेंसेटिव क्षेत्र सिर्फ़ बिनसर में ही नहीं इन सभी 16 संरक्षित इलाक़ों में घोषित किया जा रहा है. बिनसर की तरह ही कॉर्बेट, नंदादेवी और राजाजी नेशनल पार्क में भी इस प्रस्ताव का विरोध किया जा रहा है.
"वास्तव में लोगों को ग़लतफ़हमी है कि ईको-सेंसेटिव ज़ोन बनने से वो वहां कुछ भी नहीं कर पाएंगे. लंबे समय में ये स्थानीय लोगों के ही हित में होगा."
उत्तराखंड के ईको-टूरिज़म विभाग के निदेशक राजीव भर्त्तृहरि
"ये पर्यावरण के नाम पर ग्रामीणों के अधिकारों का हनन है और आदमी के बजाए जानवरों को प्राथमिकता देनेवाली बात है. एक ओर तो नेता-अफ़सरों और ठेकेदारो की साठ-गांठ से प्रदेश की सभी नदियों में खनन चल रहा है, ज़मीनें खुर्द-बुर्द की जा रही है, रिज़ॉर्ट और होटल बन रहे हैं और दूसरी ओर ग्रामीणों से उनके हक़ छीने जा रहे हैं."
अलमोड़ा में रहनेवाले समाजसेवी शमशेर बिष्ट
जयपुर से 107 किमी दूर सरिस्का और उससे सटे वन्य क्षेत्र में ज़मीन की ख़रीद फ़रोख़्त पर पाबन्दी है. गांव वाले इस में ढील की मांग कर रहे है.
सरिस्का के फ़ील्ड निदेशक आर एस शेखावत ने कहा, ''दरसल गांववाले वन्य नियमों और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के तहत किए गए उपायों में छूट चाहते हैं. ये मुमकिन नहीं है. हम उन्हें समझा रहे है. साथ ही कई बार प्रतिबंधित क्षेत्र में पशु चराने से भी विवाद हुआ है. हाल में ही हमारे कर्मचारियो पर हमला किया गया था.''
अलवर और सरिस्का के आसपास सैलानियों से जुड़े व्यापार की बहार है. इससे ज़मीन की क़ीमते बढ़ गई हैं. अरावली की ख़ूबसूरत वादियों में आबाद कोई 800 वर्ग किमी में फैले सरिस्का में वर्ष 2004 तक पंद्रह बाघ थे. लेकिन वन अधिकारियों  के अनुसार शिकारियो ने एक-एक कर इन बाघों को मौत के घाट उतार दिया
--------------------------------वन अधिकारी व हक्कुल के सांप
जागरण  05 Apr
यह विचित्र और अनुचित प्रतीत होता है कि कोई सरकार से सांपों को पालने के लिए जमीन की मांग करे और इसमें देरी होने पर सरकारी दफ्तर में सांप छोड़ने की धमकी दे, लेकिन मामला इतना सीधा सा नहीं है। बस्ती जिले के हर्रैया इलाके के जिस सपेरे हक्कुल ने तहसील में सांप छोड़ने की धमकी दी है वह विगत में अपनी धमकी को अंजाम देकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आ चुका है। पता नहीं इस बार वह क्या करेगा, लेकिन यह जानना जरूरी है कि हक्कुल मियां करते क्या हैं? वह क्षेत्र में घूम-घूमकर लोगों के घरों से सांप पकड़ते हैं। इन सांपों को वह मारते नहीं, बल्कि पालते हैं। वह सांपों के लिए भोजन का प्रबंध भी खुद करते हैं। कोई भी समझ सकता है कि यह एक ऐसा काम है जिसे किसी भी लिहाज से खराब नहीं कहा जा सकता। वह यह चाहते हैं कि उन्हें सरकार से सांप पालने के लिए थोड़ी सी जमीन मिल जाए, लेकिन छोटे-बड़े अधिकारी उन्हें लंबे समय से टरकाते चले आ रहे हैं। अफसरों के पास सबसे मजबूत तर्क यह है कि शासन के पास ऐसा कोई प्रावधान नहीं जिसके तहत सांप पालने के लिए जमीन दी जा सके।
अधिकारियों का तर्क सही हो सकता है, लेकिन क्या यह पत्थर की लकीर जैसा है? क्या शासन को इतना लचीला और संवेदनशील नहीं होना चाहिए कि वह किसी की वांछित और वैध जरूरत को पूरा करने के लिए नियमों में हेरफेर न कर सके? नि:संदेह शासन किसी की मदद न करना चाहे तो उसके पास ऐसा न करने के हजार बहाने हैं, लेकिन यदि वह किसी की सहायता करने के लिए तत्पर हो तो उसके पास दर्जनों तरीके हैं। हक्कुल की परेशानी यह बताती है कि शासन-प्रशासन किस तरह नियमों में जकड़ कर रह गया है। हक्कुल अपनी मांग के संदर्भ में स्थानीय अधिकारियों से लेकर राष्ट्रपति तक को पत्र लिख चुका है, लेकिन कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है। यदि किसी को लगता है कि हक्कुल की मांग जायज है तो उसे उसकी मदद करने के लिए आगे आना चाहिए। यह मदद तभी हो पाएगी जब नियमों की भूल-भुलैया से बाहर आया जाएगा। आखिर जो सपा सरकार अपने जिला अध्यक्षों को तमाम अधिकार दे सकती है वह हक्कुल को थोड़ी सी राहत क्यों नहीं दे सकती?
[स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश]
यहाँ वन अधिकारियों की चुप्पी देखने लायक है.
जयपुर के जलमहल मानसागर झील के मूल स्वरूप से छेड़छाड़ के मामले
सरकार का दावा
निविदा प्रक्रिया में मैसर्स के.जी.के. कन्सोर्टियम से वर्ष 2005 में करार किया गया। करार में संशोधन की मांग वर्ष 2006 में ही पूर्ववर्ती सरकार के समय की गई थी लेकिन दिसम्बर, 2008 तक इस पर कोई निर्णय नहीं किया गया। मानसागर झील में स्थित जल महल सरकार का संरक्षित स्मारक नहीं है। मानसागर झील को किसी भी संस्था को लीज पर नहीं दिया गया है। वरन् जयपुर विकास प्राघिकरण द्वारा राष्ट्रीय झील संरक्षण योजना के अन्तर्गत मानसागर झील के संरक्षण का कार्य करवाया जा रहा है।
 
झील का पुनस्र्थापन (रोस्टोरेशन) कार्य जयपुर विकास प्राघिकरण की ओर से कराया जा रहा है। झील के पास की जो भूमि व्यावसायिक उपयोग के लिए दी गई है उस का डी.एल.सी. दर से वर्तमान मूल्य 303 करोड़ रूपए है। झील का ग्राम विजयमहल वन भूमि के खसरा नम्बर 28 (जुज.) रकबा 00-03 बीघा एवं खसरा नम्बर 38 (जुज.) रकबा 00-07 बीघा वन सीमा में आता है। यह वन भूमि राजस्व रिकार्ड में गैर मुमकिन तालाब के रूप में अंकित है। उपरोक्त 10 बिस्वा भूमि वर्तमान में वन विभाग के आघिपत्य में है तथा इसमें कोई गैर वानिकी कार्य नहीं किया गया है।
यह लगाए आरोप
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कम्पनी प्राइवेट या पब्लिक लिमिटेड होनी चाहिए थी, जबकि जिसे लीज पर दिया गया, वह साझेदारी फर्म है। न्यायालय की टिप्पणी भी इस मामले में खिलाफ है
-99
साल की लीज पर देना बेचने के समान है। जेडीए के विघिक सलाहकार ने भी यही माना है
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नगर निगम की सौ बीघा जमीन लीज पर देने के लिए निगम के बोर्ड का कोई प्रस्ताव नहीं है।
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मुख्य सचिव की अध्यक्षता में बनी समिति ने जलमहल के मूल स्वरूप में बदलाव का प्रस्ताव 2007 में खारिज कर दिया था। सरकार बदलते ही आनन-फानन में बदलावों को मंजूरी दे दी गई।
-11500
का बिल्डअप एरिया 32185 वर्ग मीटर कर दिया गया
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संशोघित मास्टर प्लान 5519 वर्ग मीटर से ज्यादा नहीं हो सकता था, जिसे 125000 वर्ग मीटर करने की अनुमति दे दी गई
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जलमहल में लिफ्ट लगा दी गई, टायलेट बनाए गए, चूने की जगह सीमेंट की जालियां लगा दी गई
दे सकते हैं 30 साल, दे दी 99 साल
आरटीडीसी ने मानसागर (जलमहल) झील की सौ एकड़ भूमि की लीज प्रक्रिया में नियमों की  çज्जयां उड़ाई हैं। आरटीडीसी ने इस भूमि को 99 साल की लीज पर दे डाला, जबकि नियमों में तीस साल तक का ही प्रावधान है। निगम सूत्रों के मुताबिक लीज पर देने से पहले आरटीडीसी ने कोई कमेटी नहीं बनाई और ही विधि सलाह ली गई।
एक रूपए में दिया स्मारकझील में बने सात मंजिला जलमहल स्मारक को आरटीडीसी ने 99 साल के लाइसेन्स पर केजीके एन्टरप्राइजेज को दे दिया, वो भी एक रूपए सालाना पर।
ये कहता है 'नियम 14'
यह एक सौ एकड़ भूमि एवं जलमहल स्मारक राजस्थान पर्यटन विकास निगम (आरटीडीसी) के अधीन है। पर्यटन उद्योग के विकास के लिए दी जाने वाली किसी भी भूमि, सम्पत्ति और नजूल सम्पत्ति के बारे में कुछ नियम बने हुए हैं। ऎसे ही एक नियम 14 में स्पष्ट उल्लेख है कि आरटीडीसी किसी भी भूमि को लीज या लाइसेन्स पर अधिकतम तीस साल की अवधि तक ही लीज पर दे सकती है और किसी भूमि को लीज या लाइसेन्स पर देने का फैसला आरटीडीसी की कमेटी करेगी, लेकिन फिर भी इन नियमों की जानबूझकर अनदेखी की गई।

आरटीडीसी की सम्पत्ति अधिकतम 30 साल की लीज पर ही दी जा सकती है। झील से सटी भूमि को स्टेट एम्पावर्ड कमेटी ने 99 साल लीज पर दिया है। इसमें आरटीडीसी का कोई रोल नहीं है।
ह्वदेश कुमार शर्मा, कार्य.निदेशक, आरटीडीसी
झील तब...
पन्द्रहवीं सदी में बनी, करीब 7 सौ बीघा था भराव क्षेत्र
तत्कालीन आमेर के महाराजा मानसिंह प्रथम ने बनवाई।
अकाल से राहत देने तथा भविष्य में पेयजल की निर्बाध आपूर्ति के लिए बनी थी।
...
और अब
चार सौ बीघा रह गया भराव क्षेत्र
रिसोर्ट होटल बनाने के लिए 99 साल की लीज पर दिया
व्यावसायिक गतिविधियों से पर्यावरण को खतरा

New Interpretation विशेष क्षेत्र,अधिग्रहण करना सामान्य मामले के मुकाबले कठिन

आज की चकाचौंध भरी दुनिया में जहां रिश्ते कमजोर हो रहे हैं, वहीं तीन भाई अपने माता-पिता का नाम हमेशा के लिए जीवित रखने के वास्ते करोड़ों की संपत्ति दान में देने को तैयार हैं। चांदनी चौक के बल्लीमारान में सहाय बंधु जिस पुश्तैनी हवेली में रहते हैं उसकी कीमत आज करोड़ों में हैं। इमारत के आगे के हिस्से में वह स्वयं रहते हैं तो पीछे का काफी बड़ा हिस्सा दिल्ली नगर निगम को आयुर्वेदिक अस्पताल चलाने के लिए किराए पर दे रखा है। सहाय परिवार इसी हिस्से का मालिकाना हक एमसीडी को हस्तांतरित करना चाहता है। बस इस शर्त के साथ की अस्पताल का नाम उनके माता-पिता स्वर्गीय रामचंद सहाय और पद्मावती के नाम पर कर दिया जाए। लेकिन मुफ्त में मिलने के बाद भी मानो एमसीडी को इसमें दिलचस्पी नहीं है।
इस संपत्ति की कहानी खासी रोचक है। तकरीबन 716 वर्गमीटर की इस संपत्ति को वर्ष 1943 में रामचंद्र सहाय ने 66 हजार रुपये में खरीदा था। उस वक्त उन्होंने जनहित में इस बनी बनाई इमारत का करीब 588 मीटर बड़ा हिस्सा स्थानीय निकाय को औषधालय चलाने के लिए दे दिया था। आजादी के बाद जब एमसीडी का गठन हुआ तो वह हिस्सा एमसीडी के पास गई। स्वर्गीय सहाय के तीन बुजुर्ग बेटे देवेंद्र कुमार, राजेंद्र कुमार वीरेंद्र कुमार अब इस संपत्ति के मालिक हैं और वो इसके बाकी बचे हिस्से करीब 128 वर्गमीटर में अपने परिवार सहित रहते हैं।
संपत्ति मालिक वीरेंद्र कुमार कहते हैं कि जिस हिस्से में अस्पताल चल रहा है वह एमसीडी को देने के लिए तैयार हैं ताकि वह इसे दुरुस्त कर सके और लोगों को बेहतर सुविधा मिले। वीरेंद्र कुमार बताते हैं जब राकेश मेहता एमसीडी के कमिश्नर थे, तो उन्होंने सबसे पहले दस्तावेज सुपुर्द करते हुए अपनी गुजारिश पहुंचाई थी कि उनकी करोड़ों रुपये की संपत्ति का किराया सिर्फ 337 रुपये है। इसलिए वे उसे दान देना चाहते है। बस छोटी सी शर्त यह है कि अस्पताल का नाम उनके माता पिता के नाम पर रखा जाए। वीरेंद्र का कहना है कि उस वक्त कमिश्नर ने खुद जायजा लिया और हामी भर दी। लेकिन अभी तक मामला अटका पड़ा है। इस बाबत एमसीडी के निदेशक (जनसंपर्क प्रचार) दीप माथुर का कहना है कि चांदनी चौक इलाका विशेष क्षेत्र में आता है इस कारण किसी संपत्ति का अधिग्रहण करना सामान्य मामले के मुकाबले कठिन है। यही देरी का मुख्य कारण है
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------सरकारी जमीन के प्रबंधन की अनेकों दास्ताँ हैं.
नोएडा दिल्ली-नोएडा-डायरेक्ट (डीएनडी) की टोल ब्रिज कंपनी को 1998 में 487.711 एकड़ भूमि दी गई थी। इसमें 133.81 एकड़ भूमि का इस्तेमाल किया गया और 353.901 एकड़ भूमि बची। यह भूमि मार्च 2001 तक प्राधिकरण को वापस करनी थी।
दिसंबर 2004 में यूपी सरकार के तत्कालीन औद्योगिक सचिव ने प्राधिकरण को पत्र भेज टोल कंपनी से अवशेष भूमि वापस लेने का आदेश दिया था, लेकिन प्राधिकरण कार्रवाई की जगह कुंडली मारे बैठे रहा।
शासन ने टोल कंपनी के निर्माण में हुई धांधली की जांच के लिए 2007 में एक लेखा समिति का गठन किया था। समिति ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि जमीन वापस मिलने से प्राधिकरण को कुल 30,93,55,62,250 रुपये का नुकसान हो चुका है। टोल कंपनी ने रजिस्ट्री विभाग को भी चूना लगाया। कंपनी प्राधिकरण के बीच 23 अक्टूबर 1998 को लीज-डीड हुई थी। इसे नियमानुसार पंजीकृत नहीं कराया गया। इससे राज्य सरकार को 1042122960 रुपये के राजस्व की हानि हुई।
इस प्रकार कंपनी प्राधिकरण को 31 अरब रुपये का चूना लगा चुकी है।

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